हम इस सत्य को स्पष्ट कर दें कि यह 1947 का भारत नहीं है जब देश में भुखमरी, बेरोजगारी, अशिक्षा, सामाजिक भेदभाव, छुआछूत और अमीरी-गरीबी का तांडव देश पर मंडरा रहा था। उस वक्त देश के नागरिकों ने सिर्फ अंग्रेजों की सरकार से ही आजादी प्राप्त नहीं की थी बल्कि राजे-रजवाड़ों और नवाबी दास्तां की गुलामी से भी निजात पाई थी। देश और प्रदेशों मंे चाहे जिस राजनीतिक दल की सरकारें रही हों सभी ने अपने-अपने स्तर से उन विषयों को हल करने का प्रयास किया जो। फर्क बस इतना रहा कि किसी ने इन विषयों को पूरी ईमानदारी से हल किया तो किसी ने आधे-अधूरे मन से तथा किसी ने तो इस दिशा में काम न करने की ही कसम खा ली थी। कई राज्य और जातियां आज भी इसके उदाहरण हैं। हमने विज्ञान, उद्योग,शिक्षा और भुखमरी जैसे विषयों पर विजय प्राप्त की लेकिन जिस विषय पर हम पूरी ईमानदारी से विजय नहीं प्राप्त कर पाये वह है ’’जात और बिरादरी’’ अर्थात जातीयता। आज भी हमारे देश में जातीयता अगर चरमोत्कर्ष पर भले ही नहीं हो लेकिन बहुसंख्यक हिंदू समाज आज भी देश में ब्राह्मण, हरिजन, राजपूत, पंजाबी, बनिया, कायस्थ सहित अनेकानेक जातियों के संगठन के रूप में है। भले ही आज समाज और बिरादरी से हटकर कुछ प्रतिशत रिश्ते अर्थात शादियां गैर-समाज में हो रही हों लेकिन इसका श्रेय मात्र शिक्षा को ही है जिसके जरिये विभिन्न समाजों के युवक-युवतियां उच्च पदों पर पहुंचे और उन्होंने आर्थिक मजबूती प्राप्त कर पारावारिक विरोध को दरकिनार कर विवाह किए। यह शत-प्रतिशत सत्य है कि जिन बस्तियों में आज भी निर्धनता, गरीबी और अशिक्षा है वहा जातीयता ही सर्वोपरि है तथा इस श्रेणी के लोग जातिगत आधार पर ही अपने जीवन को चला रहे हैं और चुनावों के वक्त प्रभावित किए जाते हैं या होते हैं। जो संपन्न और संभ्रांत हो गए हों लेकिन उनकी सामाजिकता मात्र अपने को उच्च स्तर का दिखाने के लिए ही है जिसे हम ’’क्लब हाउस’’ की संस्कृति कह सकते हैं। अगर ’ए’ नामक जाति की शिक्षित लड़की संपन्न परिवार की है तो ’बी’ नामक जाति के शिक्षित और संपन्न युवक से विवाह करती है तो उनका परिवार और समाज उस रिश्ते को स्वीकार कर लेता है लेकिन अगर ’ए’ नामक लड़की शिक्षित होने के बावजूद उसका परिवार गरीब और अशिक्षित है तो ’बी’ नामक संपन्न युवक का परिवार उस वैवाहिक रिश्ते को मान्यता देने पर 100 बार विचार करता है।
हमने सामाजिकता के इस विषय को वर्तमान महाराष्ट्र एवं विधानसभाओं के आमचुनाव तथा 14 राज्यों की विस के उपचुनाव के संदर्भ में रखा है जहां कांग्रेस सहित राजनीतिक दल जातिगत जनगणना की बात कर रहे हैं तो वही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जातिगत जनगणना का विरोध करते हुए कहते हैं ’’जातिगत जनगणना जातियों को एक-दूसरे से उलझाने की चाल है’’। गैर-भाजपाई जातिगत जनगणना के पक्ष में कहते हैं कि ’’जिसकी जितनी संख्या उसका उतना वजन’’। इसका मतलब यह हुआ कि अगर एक ही जाति की संख्या सर्वाधिक होती है तो समाज में उसका दबदबा प्रदर्शित किया जाएगा। चुनावों के वक्त जातिगत आधार पर उम्मीदवार तय किए जाएंगे अर्थात अगर किसी गांव में दूसरे समाज का स्वीकार्य व्यक्ति या व्यक्तित्व है जो सभी को प्रिय हो लेकिन जातिगत संख्या के आधार पर वह उम्मीदवार नहीं बन पाएगा ना ही नौकरी प्राप्त कर पाएगा ?।
हम प्रधानमंत्री की इस बात से सहमत है कि भारत को अब जातिगत जनगणना के जाल से निकलकर और देशहित में गरीबी और अशिक्षा के विषयों को ही प्राथमिकता देने की जरूरत है। हमें गरीबों के भविष्य को बनाने के लिए उनके रहन-सहन एवं आर्थिक विषयों को ही महत्ता देने पर विचार मंथन करना होगा। जिस दिन निर्धन बस्तियां और परिवार चाहे वो मुस्लिम हों या हिंदू पूरी तरह से शिक्षित और उच्च शिक्षित हो जाएंगी तो वह प्रगति के रास्ते को स्वयं चुनकर अपने आर्थिक हालात को मजबूत कर देंगी। देश के हिंदू-मुस्लिम सहित सभी नागरिकों को ध्यान यह रहे कि कोई भी देश शिक्षा और आर्थिक प्रगति से ही ही जाना जाता है ना कि जातियांें से। अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन इसके इसके उदाहरण हैं।(updated on 11th nove 24)
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