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 -प्रसाद में मांस मिश्रण अस्वीकार्य पर आत्मा में झांके तो सनातनी

लेखक : --शेखर कपूर-


 

 
 सनातन धर्म में कहा गया है कि इंसान की तरह ’’जानवर और जीव-जंतुओं’’ में भी आत्मा निवास करती है। इसी प्रकार हिंदू धर्म में पुर्नजन्म की बात भी कही गई है। हिंदू धर्म की मान्यताओं के अनुसार मृत्यु के पश्चात अपने कर्म एवं व्यवहार के कारण ही मृत्यु प्राप्त व्यक्ति की आत्मा को किसी दूसरे रूप में भगवान जन्म देता है। अर्थात ’’आत्मा के अमर’’ होने के चलते मृत्यु पश्चात वही ’’आत्मा’’ किसी भी जीव या जन्तु अथवा जानवर के रूप में पुर्नजन्म लेती है। अगर मृत व्यक्ति ने अपने जीवनकाल में अच्छे कर्म किए हों, सच्चाई के मार्ग पर चला हो, किसी का दिल ना दुःखाया हो और जो सदा दूूसरों की मदद तथा भलाई में ही रहा हो उसे ईश्वर स्वर्ग में स्थान देता है।

हम आज इस विषय को आंध्रप्रदेश के तिरूपति मंदिर के प्रसाद में मांस के मिश्रण के संदर्भ में उठा रहे हैं। भगवान के प्रसाद को हिंदू धर्म में एक पवित्रतम श्रेणी में रखा गया है। इस प्रसाद में सनातन धर्म की आस्था और विश्वास सबसे अहम भूमिका निभाता रहा है। मात्र मंदिर में मौजूद भगवान के ’’प्रसाद’’ के लिए ही इस देश के करोड़ों सनातनी प्रतिवर्ष विभिन्न मंदिरों, देवालयों और पवित्र स्थलों की यात्रा करते हैं और विपन्न होने के बावजूद लाखों लोग करोड़ों रूपये हर वर्ष धार्मिक यात्राओं पर खर्च कर जब भगवान का प्रसाद प्राप्त करते हैं तो उनकी भावना और आस्था यही कहती है कि अब उनके दुःख और दर्द भगवान समाप्त कर देगा। इस आस्था और विश्वास का ही कारण है कि हमारे देश और सनातन धर्म के मानने वालों के कारण मंदिरों और देवालयों में इंसानी आस्था लगातार बढ़ती गई है। लेकिन जिस सत्य को हिंदू धर्म के मानने वालांे ने भुला दिया वह है ’मांस का भक्षण’ अर्थात प्रयोग। इंटरनेट पर राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ांे के अनुसार वर्ष 2019-21 के बीच देश में 77 प्रतिशत लोग मांस का प्रयोग अपने भोजन में करते बताये गए हैं। इनमें 70 प्रतिशत महिलाएं एवं 78 प्रतिशत पुरूष हैं। ध्यान रहे कि हिंदुस्तान की आबादी में मुसलमानों का प्रतिशत 2021 की गणना के अनुसार मात्र 14.2 प्रतिशत (जो अब 25 प्रतिशत माना जाता है) तथा इसाई समुदाय का प्रतिशत 2.3 है। अर्थात हिंदुस्तान में जानवरों और जीवों का मांस खाने वालों में सबसे अधिक प्रतिशत हिंदू समुदाय का ही है जो कि अपने भोजन में प्रायःप्रायः जीव-जंतुओं और जानवरों के मांस एवं मुर्गे का प्रयोग करते चले आ रहे हैं।

निश्चित रूप से आस्था और विश्वास के स्थलों में पवित्र प्रसाद में मांस की मिलावट के हम विरोधी हैं। हम इस बात के पक्षधर हैं कि प्रसाद की पवित्रता कायम रहनी चाहिये लेकिन मुख्य सवाल यही है कि जिस सनातनी देश में मात्र प्रसाद में मिलावट को लेकर विरोध हो रहा है उसी देश में 70 प्रतिशत से अधिक हिंदू आबादी के द्वारा जीव-जंतुओं और जानवरों के मांस का भोजन के रूप में प्रयोग क्यों किया जा रहा है...? हमारा यह भी सवाल है कि जिस पवित्र ’’आत्मा’’ को हम अपने ह्दय में रखते हैं और जिसके मृत्यु पश्चात ’’परमात्मा में लीन’’ होने की बात में विश्वास करते हैं उस ’’आत्मा’’ को हम क्यों ’’अपवित्र’’ कर रहे हैं...? क्यों हम जानवरों और जीव जंतुओं का मांस खा रहे हैं...? क्यों हम इन जानवरों और जीवों की आत्मा को आत्मा नहीं मानते हैं और उनका भक्षण कर रहे हैं..? क्यों हम अपने धर्म और आस्था को ’’प्रसाद तथा भोजन’’ के रूप में एकसाथ समानता नहीं दे रहे हैं? उम्मीद है इन गूढ़ शब्दों को देश का हिंदू समुदाय समझेगा और अपने भविष्य के मार्ग को तय करेगा।

(updated on 22nd september 24)
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