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 -धर्मस्थलों में युवतियों एवं बच्चों की मौजूदगी खुली किताब की तरह हो

लेखक : SHEKHAR KAPOOR


 

 
 हम आज जो सच्चाई लिखने जा रहे हैं वह सनातन धर्म के साथ ही इस्लाम और क्रिश्चियन धर्म के कुछ अनुयायियों को निश्चित रूप से बुरी लग सकती है लेकिन मुख्य सवाल यही है कि इन धर्मों के जितने भी धार्मिक स्थल और आश्रम होते हैं वहां पर सेवादार एवं योगिनी के रूप में महिलाओं, युवतियों एवं बच्चों की संख्या भी कम नहीं होती है। इनके वहां रहने, खाने और लम्बी अवधि तक मौजूद रहने के दौरान ऐसी कौनसी मजबूरी इन महिलाओं, युवतियों एवं बच्चों की होती है कि वो वहां से बाहर निकलने की कोशिश ही नहीं करते हैं। अगर परिवार के अन्य सदस्य मानवता और भावना के आधार पर अपने परिवार की युवतियों या बच्चों को इन आश्रमों से बाहर निकालकर परिवार एवं सांसारिक जीवन में लाना चाहते हैं तो उसका विरोध इन आश्रमों द्वारा किया जाता है।

ताजा प्रसंग ईशा फाडंडेशन का है जिसके प्रमुख अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पूज्य बाबा सदगुरू जग्गी वासुदेव महाराज हैं। बाबा के भक्तों में हमारे देश के कई प्रमुख राजनेता और उद्योगपति भी शामिल हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस संस्थान की शाखाएं भी हैं। यह संस्थान मानवता की दिशा में कार्य करता है। हाल ही में कोयम्बटूर एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के रिटायर्ड प्रोफेसर एस.कामराज ने मद्रास हाईकोर्ट में संस्थान और बाबा के खिलाफ याचिका दायर कर कहा कि इस संस्थान में उनकी दो बेटियां सेवादार के रूप में हैं। उनके सिर के बाल मुंडवाकर उन्हें सन्यासिनी बना दिया जबकि बाबा ने अपनी ही दो बेटियों को संस्थान से दूर रख उनकी शादियां करवाईं। आखिर क्यों बाबा अपनी बेटियों के जीवन के प्रति तो सामाजिक दायित्व निभाते हैं लेकिन दूसरे की बेटियों के प्रति नहीं। अदालत ने भी इस मामले में याचिकाकर्ता की बात को महत्व दिया और अब न्यायालय के समक्ष आने वाले वक्त में एक निर्णायक स्थिति धर्म स्थलों के बारे में इस अदालत को करनी होगी।

हम इस मसले को सार्वजनिक हित में उठाते हुए पुनः स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि हर धर्म स्थल और आश्रमों के प्रति हमारी भावना सकारात्मक है क्योंकि अधिकांश मामलों में धार्मिक स्थल मानवीय सेवा ही कर रहे हैं लेकिन वास्तविकता यह भी है कि ज्यादातर धार्मिक स्थल अपने स्थलों के आंतरिक विषयों को ना तो सार्वजनकि करते हैं और ना ही ऐसा करना चाहते हैं। परिणाम यह होता है कि कई बार कुछ धार्मिक स्थलों के अंदर युवतियों के प्रति अत्याचार, बलात्कार, छोटे बच्चों का शोषण, आर्थिक एवं अराजक विषय होना जैसे मामले आते हैं तो धार्मिक स्थलों की प्रतिष्ठा को भी चोट पहुंचती है और सम्बंधित धर्म के प्रति लोगों में नकारात्मक टिप्पणियां होने लगती हैं। ये टिप्पणियां कुछ समय बाद साम्प्रदायिक बहस और वैमनस्य को जन्म दे देती हैं। हमारा कहना यही है कि सर्वप्रथम सभी धार्मिक स्थलों की गतिविधियांे के नायक विशेषकर महिलाओं, युवतियों और बच्चों की वहां मौजूदगी का विषय सार्वजनिक होना चाहिये। कोई भी ऐसा कार्य वहां नहीं हो जिसमें परिवार के सदस्यों के विश्वास और आस्था को चोंट पहुंचे। इसी प्रकार केंद्र से लेकर राज्य सरकारों को भी अपने-अपने क्षेत्र में इन धार्मिक स्थलों में मौजूद सभी कर्मचारियों एवं सेवादारों से बातचीत करते रहना चाहिये जिससे कि सरकार और शासन के दायित्व एवं जिम्मेदारियां पूरी हो सकें। ध्यान रहे कि सरकार और शासन किसी नकारात्मक घटना पर चेतते हैं जबकि इस दिशा में तो खुली किताब की तरह काम होने की जरूरत है। मानवीय गलती के कारण किसी भी धर्मस्थल की आस्था एवं विश्वास पर चोट नहीं पहुंचनी चाहिये।
(updatged on 2nd october 2024)

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