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 दिल्ली विस चुनाव ने अभिव्यक्ति की आजादी अधिकार की सीमा लांघी है

लेखक : SHEKHAR KAPOOR


 
 हमारे संविधान, संसद, विधानसभाओं और लोकतंत्र की परिभाषा के तहत कहा गया है कि देश में जो चुनाव होते हैं वह ’’लोकतंत्र का पर्व’’ हैं। पर्व से भावार्थ यही होता है कि उत्सव या त्यौहार। भारतीय सभ्यता और संस्कृति के अंतर्गत उत्सव या त्यौहार मनाते वक्त जिन विषयों पर ध्यान रखा जाता है वे होते हैं बातचीत का तरीका, सभ्यता, शिष्ट व्यवहार, अपने शब्दों से किसी को नुकसान ना पहुंचाना और ना ही अनादर करना। हमारे संविधान में भी इन्हीं गुणों को लोकतंत्र में समाहित करते हुए सभी को जो अधिकार दिये गए हैं उनमें है ’अभिव्यक्ति का अधिकार’। अर्थात बोलने की आजादी। अभिव्यक्ति की इसी आजादी को बहुत ही सम्मान के साथ प्रयोग करने की जिम्मेदारी जिन पर सबसे अधिक होती है वह होते हैं राजनेता, राजनीतिक दल और उनके कार्यकर्ता। मुख्य बात यह भी है कि ये राजनीतिज्ञ ही लोकतंत्र के मंदिरों चाहे वो संसद हो या विधानसभा अथवा नगर परिषद या नगर पालिकाएं वहां पर चुनकर पहुंचते हैं और जिस भाषा, शब्द और वाक्यों का वह सम्बंधित सदन में प्रयोग करते हैं वह प्रवाहित होकर जनमानस में पहुंचती है। वास्तविकता तो यह भी है कि अधिकांश लोग इन राजनीतिज्ञों की भाषा को बोलचाल की भाषा के रूप में प्रयोग करने लगते हैं। इसका असर नकारात्मक अर्थात हानिकारक ही ज्यादा होता आया है। बल्कि इन नेताओं और उनकी भाषा को आदर्श मान लिया जाता है।

आज इसी अधिकार और बोलने की आजादी के संदर्भ को हम दिल्ली विधानसभा चुनाव के संदर्भ में देश के समक्ष रख रहे हैं जिसमें ’अभिव्यक्ति का अधिकार’ का सबसे अधिक दुरूपयोग उन हस्तियों और राजनीतिज्ञों द्वारा किया जा रहा है जो कि देशवासियों को समय-समय पर नैतिकता, सदाचार, मृदुभाषिता और ईमानदारी का पाठ विभिन्न माध्यम से पढ़ाते और समझाते रहे हैं। इन वर्तमान महान हस्तियों जिनमें सभी दलों के अधिकांश वरिष्ठ राजनेता हैं एक-दूसरे पर खुल्लम-खुल्ला आरोप लगा रहे हैं। एक पार्टी अपने प्रतिद्वंद्वी पर भ्रष्टाचार, निकम्मेपन, अय्याशी, रिश्वत सहित उन वीभत्स आरोपों को उन शब्दों और भाषा में लगा रही हैं जिन्हें हम अपने परिवार और समाज में प्रयोग करने से कतराते हैं या नहीं करते हैं अथवा बच्चों को इस तरह की भाषा का प्रयोग ना करने की सलाह भी देेते रहे हैं। मुख्य बात यह भी है कि सभी राजनीतिक दल दिल्ली के राजनीतिक सत्ता संग्राम में सीमा लांघने वाले जो आरोप एक-दूसरे पर लगा रहे हैं उन आरोपों को लेकर राजनीतिज्ञों पर कोई असर नहीं पड़ रहा है। याने एक राजनीतिज्ञ दूसरे राजनीतिज्ञ को अगर चोर, कपटी, भ्रष्टाचारी और बलात्कारी कह दे तो सामने वाली राजनीतिक पार्टी या उसका नेता बुरा नहीं मानता है बल्कि वह और अधिक प्रभावी शब्द रूपी आरोप जैसे लुटेरा, डाकू, गद्दार, गरीबों का छलकपटी जैसे शब्दों और वाक्यों का प्रयोग कर रहा है। यह इस बात का परिचायक है कि राजनीति में रहते हुए राजनीतिक दल एक-दूसरे पर जो आरोप लगाते हैं उनको लेकर किसी को संजीदा होने की जरूरत नहीं है। इस तरह के आरोप और प्रत्यारोपों से अब किसी की ना तो इज्जत प्रभावित होती है और ना ही कोई सामाजिक बहिष्कार और ना ही मानहानि होती है।

हमने इस विषय को देश के समक्ष इसलिए रखा है क्योंकि राजनीति में मर्यादा का पालन होना चाहिये। राजनीति में शब्दों की महत्ता रखी जानी चाहिये। राजनीति में रहते हुए जो आरोप लगाने वाले हैं उन्हीं को मतदाता अपना प्रतिनिधि चुनने जा रहे हैं। उनके द्वारा कहे गए शब्द और वाक्य चाहे तो व्यक्ति और समाज तथा देश के निर्माण में भूमिका निभा सकते हैं या फिर कितने ही लोगों का अहित भी कर सकते हैं। इसी प्रकार जो भी षब्द राजनीतिज्ञों द्वारा व्यक्त किया जाता है वह उदाहरण बन जाता है। इसके परिपाटी बनने का खतरा यही है कि आने वाले वक्त में लोकतंत्र की लड़ाई में शब्दों और वाक्यों की सीमाएं कितनी वीभत्स और नंगापन लेकर आएंगी इसकी कल्पना करने से ही शरीर सिहर उठता है लेकिन जिस प्रकार से दिल्ली में चुनाव प्रचार चल रहा है उसके आधार पर कहा जा सकता है कि आने वाले वक्त में लोकतंत्र के महापर्व जब भी चुनाव के वक्त आयोजित होंगे उनमें शब्दों की नग्नता और अश्लीलता की भरमार होगी जो कि देश की संस्कृति और सभ्यता को ही प्रभावित करेगी।

(updated on 3rd February 25)

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