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 -मनोरंजन के नाम पर हिंसा व सैक्सी फिल्मों का जोर., खामोश हैं जिम्मेदार

लेखक : SHEKHAR KAPOOR


 
 हमारे देश में जब से फिल्मों, धारावाहिकों एवं बेव सीरिजों का प्रवेश हुआ हमेशा यह कहा जाता रहा है कि इनके माध्यम से दर्शकों का मनोरंजन करना ही फिल्म जगत का उद्देश्य है। मनोरंजन के नाम पर आज से करीब तीन दशक पहले तक जो फिल्में बनती थीं शुद्ध रूप से उनमें सामाजिक तानाबाना दिखायी पड़ता था। उस वक्त की फिल्मों में करूणा, वात्सल्य, स्नेह, जिम्मेदारी, कर्तव्य, सामाजिक परिवेश एवं देशहित तथा देश प्रेम के विषय सर्वाधिक होते थे। अगर कोई फिल्म में रोमांटिक दृश्य आता था तो फिल्म सैंसर बोर्ड उस फिल्म के दृश्य पर आपत्ति करता था और कई बार उन फिल्मों पर सैंसर बोर्ड की कैंची चलती थी। मात्र मनोरंजन, हास्य विनोद और पारावारिक विषयों के साथ राष्ट्रहित के माध्यम से परोसी जाने वाली कहानियां और उन पर बनी फिल्मों से राष्ट्र के नागरिकों के मन में सकारात्मक विषय ही कौंधते थे। उस वक्त की फिल्मों में अपराध, सैक्स और हिंसा का कहीं से कोई स्थान नहीं था। परिणाम यह था कि देश में एक सकारात्मक भावना लगातार प्रबल होती रही और इस भावना के सहारे लोगों ने मनोरंजन भी किया और देश के नव-निर्माण का पाठ भी वे सीखते रहे और देश आगे की तरफ बढ़ता रहा।

हम आज इस विषय को इसलिए उठा रहे हैं क्योंकि हम देख रहे हैं कि हमारे परिवारों से लेकर समाज और देश में अपराध, हिंसा, व्यभिचार, बलात्कार, चोरी, डकैती, बुरे कर्म, भ्रष्टाचार लगातार बढ़ रहा है। आखिर ऐसा क्यों हो रहा है इस विषय पर कभी भी गंभीरता से विचार नहीं किया गया। राजनीतिज्ञों से लेकर नौकरशाहों ने मनोरंजन के वास्तविक स्वरूप को ही वक्त के साथ खत्म कर दिया। परिणाम यह निकला कि फिल्मों में हिंसा और अपराध का पहले प्रवेश कराया गया। बाद में मनोरंजन के नाम पर सैक्स को थोड़ा बहुत दिखाने की शुरूआत की गई। इसके बाद फिल्मी पर्दे पर नग्नता हावी होती चली गई। यहां तक थोड़ा बहुत ठीक था लेकिन जैसे ही हमारे देश में टेलीविजन क्रांति हुई और उसके बाद टीवी घर-घर तक पहुंचा तो मनोरंजन की यह दुनिया अधिकांश फिल्म निर्माताओं की सबसे प्रमुख पसंद हो गई और हिंसात्मक तथा सैक्सी फिल्में कभी भी और किसी भी वक्त देख लो की सुविधा ने युवावस्था की तरफ बढ़ती पीढ़ी को अंधेरे कुए में धकेलने का काम किया। आज जितने भी अपराधी पकड़े जा रहे हैं तो अधिकांश अपराधी अपना कबूलनामा जब पुलिस को करते हैं तो वह यही बताते हैं कि उन्होंने फलानी फिल्म से चोरी और डकैती के तरीके सीखे। अपराधियों ने फिल्मों से यह भी सीखा कि अपराध कर लो लेकिन सबूत मत छोड़ो या अपराध करते वक्त सबूत छोड़ने की गलती मत करना। बलात्कार करो और सबूत मिटाने के लिए उस युवती या महिला की हत्या कर दो। हिंसा व अपराध से भरी फिल्मों ने इस तरह के गुर सिखाकर अपराधियों को मजबूत करने का काम किया।

हमारा देश की सरकार, नीति निर्माताओं और बौद्धिक वर्ग से यही आग्रह है कि वह सबसे पहले देश की प्रगति में अपराध और हिंसा को पूरी तरह से खत्म करने की दिशा में ’’मनोरंजन’’ के नाम पर चल रही अपराध और हिंसा से भरपूर फिल्मों पर लगाम लगाएं। अपराध या हिंसा उतनी ही दिखायी जानी चाहिये जो कि किसी गलत व्यक्ति को सही रास्ते पर लाने का काम कर सकें। रोमांटिक फिल्मों से किसी को परहेज नहीं होगा लेकिन 95 प्रतिशत निर्वस्त्र महिला कलाकार, उत्तेजनात्मक दृश्य, अंडर गारमेंट अर्थात वस्त्रों के विज्ञापन और हिंसा करने के दृश्यों को बेहूदगी के साथ दिखाने का ही परिणाम है कि आज की युवा पीढ़ी कहीं ना कहीं से इस तरह की फिल्मों, बेव सीरीज और विज्ञापनों की चपेट मंे आकर स्वयं, परिवार, समाज और देश का बुरा कर रही है। मनोरंजन के नाम पर इस तरह की फिल्मों और दृश्यों को रोकने की सख्त आवश्यकता है वरना तो युवा पीढ़ी अपराध, हिंसा, स्मैक, शराब जैसी लत की तरफ बढ़ ही रही है। पुलिस और सुरक्षाबलों की बढ़ती संख्या, वकीलों और न्यायधीशों की बढ़ती संख्या और लगातार जेलों का निर्माण इस सत्य के उदाहरण हैं कि देश में अपराध का ग्राफ लगातार बढ़ता ही जा रहा है और देश का सेंसर बोर्ड तथा जिम्मेदार लोग आंखें बंद कर चुके हैं।

(UPDATED ON 24TH DECE 24)
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