लोकतंत्र की अगर अच्छाईयां हैं तो इसकी कई खामियां भी हैं। अच्छाईयां यही हैं कि इंसान को बोलने की आजादी है। इसीलिए तो हमारे देश के संविधान में बोलने की आजादी को शामिल किया गया। उद्देश्य यही था कि अगर कहीं पर गलत हो रहा है तो उसे अभिव्यक्ति के माध्यम से सुधारा जाना चाहिये जिससे कि प्रताड़ित, प्रभावित और पीड़ित व्यक्ति को न्याय मिल सके। कानून की किताबों में बोलने की आजादी के विषयों को विस्तार से विभिन्न रूपों में बताया गया है लेकिन पिछले कुछ दशकों में और विशेषकर एक दशक के दौरान बोलने की आजादी का सर्वाधिक दुरूपयोग अगर किसी के द्वारा किया जा रहा है तो वह हैं राजनीतिज्ञ दल। राजनीतिज्ञ दल ही बहुमत होने पर लोकसभा से लेकर विधानसभाओं और स्थानीय निकायों में सरकार बनाते हैं। सरकार बनाने से पहले उन्हें राजनीतिक रूप से चुनाव लड़ना होता है। चुनाव के दौरान वह अपने विरोधियों पर तमाम तरह के आरोप बयानबाजियों के माध्यम से लगाते चले आ रहे हैं। एक पक्ष दूसरे पक्ष को भ्रष्टाचारी, निकम्मा, चोर और डाकू तथा लुटेरा कह देता है। कई लोग खुलेआम सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग करने, धन का गबन करने के अलावा महिलाओं के साथ अश्लीलता, छेड़छाड़ सहित अन्य आरोप लगाते रहे हैं। जैसे ही आरोप लगता है तो पीड़ित व्यक्ति यही कहता है कि राजनीतिक द्वेषवश उस पर आरोप लगाया गया है। अर्थात संगीन और गंभीर आरोप भी राजनीति का आवरण ओढ़ चुके हैं।
आज हम इस विषय को महाकुम्भ और दिल्ली विधानसभा चुनाव के संदर्भ में भी उठा रहे हैं। कुंभ में हुई भगदड़ में 30 श्रद्धालुओं की मौत के बाद कुंभ का स्नान अपनी गति पर जारी है लेकिन विपक्ष का कहना है कि इस हादसे में 30 नहीं बल्कि कई और लोग भी मारे गए। राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर इस मामले की वास्तविकता को छिपाने के खुलेआम आरोप लग रहे हैं। आरोप जिस पर लग रहे हैं वह राज्य के मुख्यमंत्री के पद पर हैं तो वहीं अखिलेश यादव सांसद होने के साथ पूर्व मुख्यमंत्री भी हैं। वह भी एक जिम्मेदार व्यक्ति और राजनेता हैं। अगर अखिलेश के आरोप पर कुछ प्रतिशत लोग भी विश्वास कर लें तो उस विश्वास की जद में योगी आदित्यनाथ आ ही जाते हैं। क्या अखिलेश यादव ने राजनीतिक द्वेष और जनता में अपनी विश्वसनियता के अंकों को बढ़ाने के लिए गंभीर आरोप लगाए हैं तो इस मामले की तुरंत जांच होनी चाहिये। इसी प्रकार दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी खुलेआम इस वक्त राजनेता एक-दूसरे पर आरोप लगाए जा रहे हैं। सबसे पहला नुकसान तो मीडिया का हो रहा है या मीडिया का दुरूपयोग इस माध्यम से करवाया जा रहा है। अर्थात एक आरोप लगा दीजिए और उसके बाद मीडिया और विशेषकर इलेक्ट्रानिक मीडिया अपनी छवि को बढ़ाने के क्रम में इन नेताओं के इस तरह के आरोप-प्रत्यारोप की कठपुतली बन कर रह गया है। अधिकांश मीडिया में 70 से 80 प्रतिशत मात्र राजनीतिक कवरेज, आरोप प्रतयारोप, गाली गलोच, भाषणबाजी ही प्रकाशित और प्रचारित होती हैं।
ध्यान देने की बात यह है कि आरोप लगाने वाले और जिन पर लग रहे हैं दोनों ही इस तरह के आरोपों को लेकर संजीदा नहीं होते हैं। 100 में से एक व्यक्ति ही अदालत में मानहानि का मुकदमा दायर करता है। मुकदमा जीतने पर या मुकदमें के दौरान ही एक पक्ष माफी मांग कर मामले को खत्म करवा देता है। शेष 99 प्रतिशत मामलों में बस मीडिया के जरिये ही आरोप-प्रत्यारोप चलते रहते हैं। हमारा इस दिशा में सुझाव यही है कि अब कानून की किताबों और धाराओं में इस विषय को लेकर काम होना चाहिये। आरोप लगाने वाले अगर ठोस प्रमाण के साथ आगे बढ़ते हैं और वास्तव में वो देश के साथ न्याय करना चाहते हैं तो उन्हें सम्बंधित आरोप मीडिया ही नहीं बल्कि अदालत में भी दायर करना चाहिये। अदालत से भी आग्रह यही रहेगा कि मात्र मामला वापसी, माफी और आर्थिक दंड की बजाए कड़ी सजा की व्यवस्था को वह मजबूत बनाये। कारण यही है कि इस वक्त आरोप-प्रत्यारोप के माध्यम से मीडिया, कानून और पुलिस का खुला दुरूपयोग हो रहा है जो अभिव्यक्ति की आजादी का खुल्लम खुल्ला दुरूपयोग है और इससे जनमानस प्रभावित हो रहा है।(UPDATED ON 4TH FEBRUARY 25)
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