विश्व के किसी भी देश या भारत के ही किसी भी राज्य में अगर कोई व्यक्ति आवागमन करता है तो उसके पास संवाद प्रेषण अर्थात बातचीत के लिए एक स्वीकार्य भाषा अर्थात लेंग्वेज की जरूरत होती है। राष्ट्रभाषा हिंदी का प्रसार-प्रचार तो भारत के अधिकांश राज्यों में हो चुका है और हिंदी का प्रयोग अमूमन हर राज्य में किया जाता है अथवा हिंदी बोलने और समझने वाले मिल ही जाते हैं। यही स्थिति विदेशों में है जहां हर साल लाखों की संख्या में हिंदुस्तानी पर्यटक, विद्यार्थी, कारोबार, विवाह एवं अन्य कारणों के कारण पहुंचते हैं। शायद ही कोई ऐसा मुल्क हो जहां पर हिंदुस्तानी या हिंदुस्तानी मूल के लोग ना हों। इसी प्रकार इन मुल्कों में हिंदी बोलने वाले भी मिल जाएंगे। आपात स्थिति में विदेश में स्थित भारतीय दूतावास अंग्रेजी भाषा ना जानने वाले भारतीयों के लोगों के लिए दुभाषिये की व्यवस्था भी कर देता है लेकिन अन्य भारतीय भाषाओं के साथ ऐसा नहीं है लेकिन हिंदी भाषा को विश्व स्तर पर बोला और समझा तो निश्चित रूप से जाता ही है। इसी प्रकार जब बात राष्ट्रभाषा और मातृभाषा की आती है और अगर किसी प्रांत या समूह में अगर मातृभाषा को महत्व दिया जाकर राष्ट्रभाषा को अनदेखा किया जाता है तो इससे भारतीय संघ अर्थात हमारी संप्रभुता कहीं ना कहीं प्रभावित होती है।
हम मातृभाषा और राष्ट्रभाषा के बीच के विषय को भारतीय एकता के संदर्भ में उठा रहे हैं। हमारे देश की वास्तविकता तो यही है कि हम विभिन्न भाषाओं और प्रांतों वाले भारतीय हैं। हमारे संविधान में भी 18 अधिक मातृभाषा शामिल की गई हैं। इन्हें मातृभाषा में शामिल करने का उद्देश्य यही है कि हर समुदाय और प्रांत को उसकी भाषा के माध्यम से महत्व मिल सके लेकिन राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को संविधान में इसलिए महत्व दिया गया जिससे कि देश से लेकर विश्व स्तर तक भारतीयों को एक-दूसरे के नजदीक आने, एक दूसरे को समझने और अपनी बात का संप्रेषण करने में सुविधा हो सके। हाल ही में महाराष्ट्र राज्य की सरकार ने मराठी भाषा को सरकारी कामकाज में आवश्यक घोषित किया है। निश्चित रूप से उसका इस प्रयोजन के पीछे भावार्थ यही है कि राज्य की संस्कृति और सभ्यता लगातार विकसित होती रहे। लेकिन इसके साथ ही राज्य सरकार को जिस विषय पर नजरअंदाजी नहीं करनी चाहिये थी वह है हिंदी भाषा की महत्ता। राज्य सरकार और वहां के राजनीतिज्ञों को यह सच्चाई समझनी चाहिये कि मातृभाषा परिवार और समाज तक उचित है और उसी दायरे में हमारी मातृभाषा को पूरा सम्मान मिलता है लेकिन जब राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संवाद और सहयोग की बात आती है तो उस वक्त राष्ट्रभाषा की जरूरत ही महसूस होती है। अर्थात महाराष्ट्र में अगर कामकाज की भाषा में मराठी के साथ हिंदी को भी आवश्यक रूप से प्रयोग करने पर जोर दिया जाता तो इससे राष्ट्रीयता की भावना और अधिक मजबूत होती। आज जिन लोगों को अंग्रेजी के साथ हिंदी भाषा का ज्ञान है उनकी ’’पूछ और पहुंच’’ अंतरराष्ट्रीय स्तर तक बन गई है। अगर हमारे देश में अंग्रेज नहीं आतेे और वे भारतीयों को अंग्रेजी में प्रवीण नहीं करते तो क्या भारतीय आज विश्व स्तर पर पहुंच पाते?। इसी प्रकार देश के विभिन्न राज्यों के लोग जब एक दूसरे के राज्यों में जाते हैं तो उन्हें राष्ट्रभाषा अर्थात हिंदी भाषा का ज्ञान होता है तो इससे उन्हें वहां रहने, खाने और जीवन को चलाने में सहयोग मिलता है।
हमारा सभी राज्यों की सरकारों, राजनीतिज्ञों और व्यक्तियों से यही कहना है कि वह मातृभाषा को स्थानीय स्तर पर अवश्य महत्व दें लेकिन सार्वजनिक जीवन और राष्ट्रीय स्तर पर देश अर्थात भारत की पहचान को मातृभाषा ’’हिंदी’’ का प्रयोग कर हिंदी को और अधिकाधिक महत्व दें। बहुभाषी लोग जब अपने परिवार और समाज में रहें तो मातृभाषा का उपयोग होना चाहिये लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर और देशभक्ति को मजबूत करने की दिशा में हिंदी भाषा को भी वरियता क्रम में रखने की जरूरत है। ध्यान रहे कि विश्व स्तर पर कोई भी व्यक्ति मराठी, पंजाबी, ब्राह्मण इत्यादि के कारण नहीं बल्कि हिंदी और हिंदुस्तानी के कारण जाना जाता है। विश्व स्तर पर राष्ट्र और राष्ट्रीय भाषा का महत्व सबसे पहले होता है बाद में प्रांतीय या मातृभाषा का। उम्मीद है हर प्रांत का वासी इस गूढ़ता को समझेगा और राष्ट्रभाषा हिंदी को महत्व देगा।
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