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-संपादकीय---चुनाव प्रचार को ’’जन भावना रूपी’’ बनाना जरूरी


-संपादकीय---चुनाव प्रचार को ’’जन भावना रूपी’’ बनाना जरूरी

देश 18वीं लोकसभा के चुनाव के लिए तैयार हो रहा है। सभी राजनीतिक दल इस वक्त एक-दूसरे के किले में सेंध लगाने, उम्मीदवारों को छांटने और एक-दूसरे के संभावित विजयी उम्मीदवारों को अपनी ओर खींचने का काम कर रहे हैं या ये भी कह सकते हैं कि ’’कोशिश’’ कर रहे हैं। मुख्य बात यह है कि इस वक्त जिन उम्मीदवारों पर सभी दल ’’डोरे डालने’’ का काम कर रहे हैं उनमें अधिकांशतः वो राजनेता शामिल हैं जिनका एक राजनीतिक इतिहास है और जिन्होंने लोकतंत्र में चुनाव प्रचार को महंगा अर्थात खर्चीला बनाया है। पिछले तीन दशक के दौरान के जितने भी चुनाव और उस दौरान चुनाव प्रचार हुए उनमें जो शान-शौकत, रैलियां, प्रचार सामग्री सहित मतदाताओं को लुभाने के तरीके अपनाये गए उनके कारण चुनाव प्रचार महंगा ही नहीं बल्कि अत्याधिक महंगा होता चला गया है।

अगर चुनाव प्रचार के ऐतिहासिक तथा शुरूआती मंजर को देखा जाए तो उस वक्त के चुनाव आम जनता की भावना के अनुकूल होते थे। उस वक्त उम्मीदवार का चयन उसकी साफ छवि, समाज एवं देश के प्रति उसके योगदान तथा चारित्रिक गुणों के आधर पर किया जाता था। उम्मीदवारों का चयन जनता के बीच से उसके गुणों के आधार पर किया जाता था। उम्मीदवार घर-घर जाकर मतदाताओं से मिलते थे और जो विजयी उम्मीदवार होता था वह जनता के लिए हमेशा उपलब्ध रहता था। मतदाताओं को भी जब जरूरत होती थी वह अपने नेता अथवा विजयी उम्मीदवार से सीधे संपर्क कर लेता था। इसका कारण यह भी था कि उस वक्त उम्मीदवारों तथा विजयी उम्मीदवारों के साथ सुरक्षाकर्मी नहीं होते थे। कारण यही था कि अपराध और अपराधियों की शुरूआत उस वक्त नहीं हुआ करती थी। इसी प्रकार सभी उम्मीदवार एक ही मंच पर मौजूद होते थे और अपनी-अपनी बात अर्थात अपने एजेंडे को जनता के बीच खड़े होकर रखते थे। इसका फायदा यह होता था कि सभी उम्मीदवारों के चुनावी प्रचार खर्चों में बचत होती थी तथा उम्मीदवारों के बीच सौहार्द एवं प्रेम भी बनता था।

चार दशक तक चुनाव प्रचार एक सकारात्मक भूमिका में था लेकिन इसके बाद धनबल, बाहुबल, अपराध और अपराधियों का लोकतांत्रिक चुनाव परिधि में प्रवेश हो गया। चुनाव के दौरान स्वयं को संपन्न दिखाने की होड़ में आर्थिक रूप से मजबूत व्यापारियों, उद्योगपतियों तथा अपराधियों का सिक्का चलने लगा। परिणाम यह निकला कि लोकतंत्र को मजबूत करने की दिशा में आम चुनाव, विधानसभा चुनाव और स्वयात्तशासी संस्थाओं के चुनाव पर ’रूपया तं़त्र’’ हावी होता चला गया। अर्थात जिसके पास जितना धन होगा वह व्यक्ति उम्मीदवार बन सकता है।

चूंकि देश इस वक्त आर्थिक, औद्योगिक, व्यवसायिक, रोजगार तथा आंतरिक एवं बाहरी स्तर पर मजबूत हो रहा है। भारत की यशगाथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गूंज रही है लेकिन इसके बावजूद आम चुनाव के महंगा होने तथा उम्मीदवारी स्तर पर आम जनता के बीच के सुशिक्षित, ईमानदार लेकिन आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्ति उम्मीदवार नहीं बन पा रहे हैं। चुनाव में व्यक्तिगत स्तर पर ही करोड़ों रूपये के खर्च के कारण आम व्यक्ति सिर्फ सामान्य व्यक्ति या मात्र मतदाता होकर रह गया है। उसकी भागीदारी मात्र वोट डालने तक ही सीमित रह गई है। इसी प्रकार राजनीतिक दलों के बीच दुश्मनी तथा वैमनस्यता दिखायी पड़ने लगी है। चुनाव आयोग भी चुनावी खर्च को लगातार बढ़ा रहा है। परिणाम स्वरूप लोकतंत्र पर अर्थतंत्र भारी दिखाई पड़ रहा है जो कि देश तथा लोकतंत्र के लिए घातक है। इसी का परिणाम है कि विजयी होने वाले लोकसभा तथा विधानसभा उम्मीदवार अपनी घोषित संपत्ति को कई गुना बढ़ा लेते हैं। हम उम्मीद करते हैं कि भारत जैसे देश में सभी राजनीतिक दल आम जनता के बीच से उम्मीदवार निकालें और चुनावी खर्च को करोड़ों रूपये के व्यय की बजाय चंद हजार रूपये नीचे ले आएं। प्रलोभन और अपव्यय की काली छाया से लोकतंत्र का यह पर्व मने यही हमारी आशा और कामना है।
(updated on 26th February 2024)
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