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edi - -संस्कृति और इतिहास को स्वीकार करना जरूरी है

-संस्कृति और इतिहास को स्वीकार करना जरूरी है


संपूर्ण देश इस वक्त राममय होता दिखायी पड़ रहा है। अयोध्या में भगवान श्रीराम के बाल रूप ’’रामलला’’ की सोमवार अर्थात कल प्राण प्रतिष्ठा हो जाएगी और इसके साथ ही 550 साल पुराने इतिहास की कड़वी यादें भी वक्त के साथ पीछे छूटने लगेंगी लेकिन इसके बावजूद अभी तक देश के सभी राज्य विशेषकर गैर-भाजपा शासित राज्यों में इतिहास और संस्कृति की पुर्नस्थापना के इस शाश्वत सत्य को जीवंत होते हुए देखने के लिए जोश नहीं आया है लेकिन आभामंडल इस तथ्य की गवाही दे रहा है कि आज नहीं तो कल इन गैर-भाजपा शासित राज्यों और विशेषकर दक्षिण भारत के राज्यों को अपने ही देश के इतिहास तथा संस्कृति की पुर्नस्थापना के सत्य को स्वीकार करना ही होगा।

राजनीतिक स्तर पर भले ही मत भिन्नता भाजपा विरोधी दूसरी पार्टियों में हो लेकिन वास्तविकता यह भी है कि उनकी जड़ें भी कहीं न कहीं से सनातन, इतिहास और संस्कृति से जुड़ी हुई हैं। कुछ राज्य और राजनीतिक दल खुलकर इतिहास के इस सत्य को चरितार्थ होते देखने से स्वयं को दूर रखे हुए हैं । उदाहरण के तौर पर बिहार की सत्तारूढ़ पार्टी की जड़े सनातन से ही जुड़ी हैं लेकिन वहां के मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री के अलावा उनकी पार्टियां सार्वजनिक तौर पर अयोध्या के इस सत्य को स्वीकार नहीं कर पा रही हैं। यही स्थिति पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों की है जहां आबादी तो सनातन धर्माबलंबियों की भी है लेकिन वे पिछले 75 साल में तुष्टिकरण के उस स्वार्थ को खत्म नहीं करना चाहते हैं जो स्वयं मुस्लिमों के लिए हानिकारक रहा है।

इस बात को नरमपंथी और चरमपंथी अल्पसंख्यक भी मानते हैं कि इस देश में ही उनका जन्म हुआ है और जब भारत इस धरा पर अस्तित्व में था उस वक्त सिर्फ सनातन धर्म ही था। मुगल शासक और अंग्रेज इस देश के नहीं थे। वे साम्राज्य विस्तार अथवा व्यवसाय के लिए भारत में आए और यहां आकर उन्होंने अपनी जड़ें जमाने के लिए धर्मांतरण जैसे नापसंद रास्तों को चुना और अपने-अपने धर्म को फैलाया। इसके साथ ही उन्होंने सनातन धर्म के मठ और मंदिरों को अपने-अपने मजहब के अनुसार रूप दिया। अर्थात आज के अल्पसंख्यकों के पूर्वज कभी न कभी सनातन से ही सम्बद्ध थे और इसीलिए वर्ष 1947 के बाद देश की एकता को बनाये रखने के लिए ’’हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सब हैं आपस में भाई-भाई’’ का नारा दिया गया लेकिन यह नारा सिर्फ ’हिंदू और मुसलमानों ’’ पर आकर ठहर गया और इसका परिणाम यह रहा कि देश के मुस्लिम समुदाय को कट्टरता की ओर ले जाकर उनके विकास को रोक दिया गया।

देश के मुस्लिम समाज के समक्ष इस वक्त एक सच्चाई और सामने है। वह यह है कि भाजपा विरोधी पार्टियां कुछ राज्यों की सरकार में हैं वो भी हिंदुत्व और सनातन से स्वयं को दूर नहीं कर पा रहे हैं और उन्हें अपने-अपने भविष्य का डर है। इसीलिए पश्चिम बंगाल में वहां की सरकार 22 जनवरी को अपने स्तर पर हिंदुत्व के कार्यक्रम आयोजित कर रही है। दिल्ली सरकार भी हनुमान जी की विशेष पूजा आयोजित करेगी और हिमाचल की कांग्रेस सरकार ने भी 22 जनवरी को आधे दिन का अवकाश घोषित कर यह संदेश दिया है कि वह हिंदू मतदाताओं को नाराज नहीं कर सकती है। अर्थात ये राज्य काला चश्मा पहन इस सत्य को देखते हुए मौन समर्थन दे रहे हैं। अर्थात मुख्य लबोलुआब अब यही है कि हमारे देश के मुस्लिम भाईयों को इतिहास को देखकर और समझकर कदम उठाने होंगे। उन्हें यह सत्य स्वीकार करना ही होगा कि इस देश की माटी में ही उनका भविष्य है और उन्हें हिंदुओं के साथ अपने रिश्तों को और अधिक मधुर बनाना ही होगा। मुस्लिम समुदाय खुलकर अपने धर्म को माने और इबादत करे लेकिन दूसरे धर्म की वास्तविकता को स्वीकार कर उन्हें सम्मान देने में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले।