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संपादकीय--’’कथनी को करनी’’ में बदलना होगा सांसदांे को



आज संसद का निम्न सदन अर्थात लोकसभा अगले आम चुनाव और अगली लोकसभा तक के लिए स्थगित हो गया। अब सभी राजनीतिक दल और उनके नेता तथा कार्यकर्ता 18वीं लोकसभा के लिए अपने-अपने भाग्य आजमाएंगे। देश का आम मतदाता जिनके भाग्य में जीत का बटन ईवीएम पर दबाएगा वहीं 18वीं लोकसभा में पहुंच पाएगा। लेकिन इसके साथ ही आज जब लोकसभा के सभी सदस्य 17वीं लोकसभा से विदायी ले रहे थे तो एक-दूसरे के प्रति अपने गिले-शिकवे दूर कर वायदा कर रहे थे कि वे लोकतंत्र को मजबूत करेंगे एवं देश की आन,बान तथा शान को मजबूत करेंगे। उनके आज के आचरण को देखकर सुखद अनुभूति हुई।

निश्चित रूप से हमें इन विदा हुए सांसदों की कथनी पर भरोसा है कि जो उन्होंने जो कुछ आज लोकसभा में कहा उनमें से जो भी अगली लोकसभा में पहुंचेंगे वो अपनी बात को ध्यान रखेंगे तथा लोकसभा की कार्रवाई के प्रति मर्यादित आचरण का परिचय देते हुए नये सदस्यों के सामने अपने आचरण से सदन की गरिमा को चार चांद लगाएंगे लेकिन हम यह बता देना चाहते हैं कि निवर्तमान लोकसभा में पिछले पांच साल के दौरान जितने भी सत्र हुए उनमें विपक्ष ने अपनी गरिमा और आचरण का जो भी परिचय दिया उसे वो भी जानते हैं और देश भी। सच्चाई यह है कि जितने भी सत्र हुए उनमें लोकसभा का कामकाज जनता की भावनाओं और लोकतंत्र के अनुकूल नहीं हुआ। हर सत्र में बहिर्गमन, शोर शराबा, तख्तियां लेकर सत्ता पक्ष के खिलाफ प्रदर्शन, अध्यक्ष की आसंदी के नजदीक आकर कागज के टुकड़े फैंकना, प्रश्नकाल तथा शून्यकाल को न चलने देना जैसे कार्य लगातार किए जाते रहे। परिणाम यह होता रहा कि संसद की कार्रवाई हर सत्र में हर दिन और कुछ घंटों तक स्थगित रही अथवा अगले दूसरे दिन के लिए स्थगित होती रही। पूरा देश आंदोलनकारी और प्रदर्शनकारी सांसदों की कार्यपद्धति को देखता रहा। देश की जनता मीडिया के माध्यम से इन सांसदों की गतिविधियों को देखती रही तथा उनके आचरण को कतई भी लोकतंत्र की भावना के अनुकूल नहीं पाया।

हम यह बात निवर्तमान लोकसभा के सांसदों से कहना चाहेंगे कि उन्होंने जो भी आंदोलन 17वीं लोकसभा के हर सत्र में किए वो लोकतंत्र की भावना के विपरीत थे। संसद का बायकाट, शोर-शराबा तथा संसद को न चलने देना जैसी गतिविधियां आखिर क्या जनआकांक्षाओं को पूरा कर पायी? आंदोलनकारी सांसदों ने प्रश्नकाल तथा शून्यकाल जैसे महत्वपूर्ण अवसरों को क्या नहीं गवा दिया..? उन्होंने बहस के अवसरों को गवा कर जनता के उन प्रश्नों को संसद के माध्यम से सार्वजनिक होने में क्यों व्यवधान डाला जो देश का मतदाता जानना चाहता था। देश के मतदाताओं के लाखों रूपये संसद की प्रतिदिन की कार्रवाई में व्यय होते रहे., उनके आंदोलन से व्यर्थ में नहीं चले गए..? आखिर उन्होंने सत्ता पक्ष को क्यों मौका दिया कि जो विधयेक संसद के अंदर बहस के माध्यम से पारित होने थे उन्हें अध्यादेश के जरिये सरकार ने मंजूर करवाया। अगर विपक्ष चाहता तो हर विधेयक बहस के बाद पारित होता। सत्ता पक्ष को उन्होंने विधेयकों को पारित करवाये जाने के लिए पतली गली से निकल जाने जैसा आसान रास्ता क्यों दिया..?

खैर ! कहते हैं कि देर आए दुरूस्त आए। जो नुकसान देश और देश की जनता का होना था वो हो गया। लेकिन अब हम इस संपादकीय के माध्यम से यह आशा करते हैं कि लोकसभा के अंतिम दिन की कार्रवाई के दौरान जो वायदे उन्होंने किए तथा गिले-शिकवे दूर करने की बात कही वो यथार्थ में लोकसभा के आमचुनाव में भी दिखायी पड़े। कम से कम खर्च में चुनाव हो। एक -दूसरे पर आरोप लगाए जाएं लेकिन हिंसा, छीनाछपटी तथा धन का अपव्यय जैसी नकारात्मक गतिविधियां चुनाव का हिस्सा नहीं बननी चाहिये। क्योंकि चुनाव प्रचार के दौरान उनकी हर गतिविधि को जनता देखेगी और आकेगी तथा उसके आधार पर उन्हें वोट देगी। कई निवर्तमान लोकसभा प्रतिनिधि पुनः इस जनसदन के लिए चुने जाएंगे तो उन्हें अपने वचन स्मरण रखने होंगे तथा उसके आधार पर अपना आचरण व्यक्त करना होगा तथा जो नये सदस्य चुन कर सदन में पहुंचेंगे उनके लिए मर्यादित परिवेश एवं वातावरण तैयार करना होगा। अगर इन विषयों पर ध्यान नहीं दिया गया तो यही कहा जाएगा कि ’तुम कितना भी कह लो, हम नहीं सुधरेंगे’’।(UPDATED OIN 10TH FEB 24)

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