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-संपादकीय--लोकतांत्रिक चुनाव प्रणाली पर लग चुके हैं प्रश्न चिंह


इस वक्त देश के राज्यों की राजनीति नये सिरे से करवटें ले रही है। लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत सभी राजनीतिक दल अपने-अपने उद्देश्य लेकर चुनाव लड़ते हैं तथा जनता के प्रति जवाबदेह होते हैं। देश में आजाद लोकतंत्र को स्थापित करने के लिए एक लम्बी लड़ाई लड़ी गई तथा उसके बाद जब देश का संविधान 1950 में अस्तित्व में आया तो हर नागरिक को अपने-अपने राज्य में यह आशा बंधी कि जिस भी राजनीतिक दल को सरकार बनाने के लिए वह चुन रहा है वह उसकी आशाओं और आकांक्षाओं पर खरी उतरेगी। कुछ दशकों तक चुनाव के माध्यम से लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति कोई द्रोह या विद्रोह अथवा दलबदल या विधायक खरीदी जैसे मामले सामने नहीं आए। इसका कारण यह रहा कि चुनाव के दौरान जिस भी पार्टी को बहुमत मिलता रहा वह सरकार बनाता रहा। जिस राज्य में किसी राजनीतिक दल को बहुमत नहीं मिला तो वहां लोकतंत्र को चलाये रखने तथा राज्य में सरकार की आवश्यकता के क्रम में दूसरी पार्टी सत्ता से बाहर रहकर सरकार को समर्थन देती रहीं। या फिर सम्बंधित राज्य में राष्ट्रपति शासन प्रभावशील कर दिया गया।

वर्ष 1980 के दशक में राज्यों की सरकारों का गिरना और बहुमत खो देना तथा उसके बाद सम्बंधित राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगते रहे। राष्ट्रपति शासन के बाद पुनः चुनाव होते रहे और फिर सम्बंधित राज्य में सरकार बनती दिखायी पड़ीं। एक ही राज्य में जब किसी राजनीतिक दल को पर्याप्त बहुमत नहीं मिला और बाहर से बाद में समर्थन लेने की बजाय चुनाव से पहले के गठबंधन की शुरूआत राजनीतिक दलों ने आरम्भ कर दी। लेकिन इसके पहले लोकतांत्रिक चुनाव प्रणाली में संशोधन किए गए। बाद में जब यह व्यवस्था भी भ्रष्टाचार और विवाद का विषय बनती चली गई। पहले ढाई साल हम और बाद के ढाई साल में तुम शासन करोगे इस व्यवस्था को भी राजनीतिक दलों ने अपने अनुसार करवा लिया। लेकिन यह व्यवस्था भी बाद में विवाद में घिर गई क्योंकि एक पार्टी ने तो ढाई साल शासन कर लिया लेकिन जब दूसरी पार्टी का समय आया तो पहले वाली पार्टी ने पलटी मार ली। उत्तरप्रदेश इसका शाश्वत उदाहरण रहा।

वर्ष 2019 में इसी चुनावी व्यवस्था को उस वक्त झटका लगा जब महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में चुनाव से पहले शिवसेना ने भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और गठबंधन ने विजय प्राप्त की परंतु जिदस दिन सरकार बनने थी उसके चंद घटे पहले ही शिवसेना ने भाजपा से चुनाव पूर्व का गठबंधन तोड़कर अन्य उन पार्टियों से हाथ मिलाकर सरकार बना ली जिनका चुनाव प्रचार के दौरान विरोध किया था। इसी दौरान सत्ता को पकड़ने के लिए और भी कई हथकंडे अपनाये जाते रहे और इस लड़ाई में निर्दलीय विधायकों की भी कथित खरीद-फरोख्त की खबरें आती रहीं। याने निर्दलीय विधायक भी कई राज्यों में मंत्री बनते दिखायी पड़े। सत्ता की मलाई चखने के आज के वक्त के सबसे बड़े अभिनेता यही निर्दलीय विधायक हैं जिन पर हर राज्य में हर पार्टी अपनी नजर रखती है कि न जाने कब इनकी जरूरत आ पड़े।

कुल मिलाकर हम यह विषय राष्ट्रपति और चुनाव आयोग के समक्ष रख रहे हैं। हमारा कथन यही है कि पिछले 70 से 75 सालों के दौरान कम से कम राज्यों में सरकार गठन का मामला पूरी तरह से प्रदूषित होकर भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुका है। पर्याप्त बहुमत न मिलने के बाद और राष्ट्रपति शासन की आशंका के चलते चोर-चोर मौसेरे भाई बन जाते हैं। अर्थात सत्ता में बने रहने के लिए वह दुश्मन से भी समझौता कर रहे हैं। इसका परिणाम यह हो रहा है कि एक मतदाता स्वयं को ठगा सा महसूस कर रहा है। अगर किसी राज्य में जनता ने किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं दिया तो जनता के इस निर्णय को राजनीतिक दलों ने स्वीकार नहीं किया और वो सत्ता में बने रहने के नये-नये तरीके इजाद करते रहे हैं। इसलिए अब राष्ट्रपति तथा देश के चुनाव आयोग को देश के लोकतंत्र में विश्वास पैदा करने के लिनए कोई न कोई प्रभावकारी कदम उठाने होंगे। वरना तो लोकतंत्र की धज्जियां उड़ती रहेंगी। चुनाव आयोग और राष्ट्रपति को नये सिरे से सोचना होगा कि अगर किसी राज्य में जनता किसी भी दल को बहुमत नहीं देती है तो उस निर्णय को स्वीकार किया जाए ना कि उस निर्णय की काट राजनीतिक दल निकालें। अगर आज बिहार, झारखंड या दिल्ली अथवा अन्य राज्यों में जो राजनीतिक अस्थिरता है उसके कारण अगर किसी का नुकसान हो रहा है तो वह वह है सम्बंधित राज्य की जनता। जनता के धन का उपयोग इस वक्त लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए नहीं हो पा रहा है। इसलिए बेहतर यही होगा कि अब राज्यों और केंद्र के चुनावों को लेकर नयी व्यवस्था पर विचार मंथन हो जो जनता को स्वीकार्य हो।
(updated on 5th Feb 24)