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-संपादकीय--’’कानून’ शब्द पर विधायिका व न्यायपालिका से उम्मीदें हैं

-संपादकीय--’’कानून’ शब्द पर विधायिका व न्यायपालिका से उम्मीदें हैं

हमारे देश में लोकतंत्र है और लोकतंत्र के तहत अनेकानेक संस्थाएं हैं जो कि नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करती हैं तो नागरिकों को संरक्षण भी देती हैं। हमारा कानून लिखित तौर पर यह कहता है कि कानून सभी के लिए बराबर है तथा कानून से ऊपर कोई नहीं है। हमारा कानून यह भी कहता है कि चाहे कितना ही बड़ा सत्तारूढ़ नेता, उद्योगपति, व्यापारी अथवा आम इंसान हो वह कानून से ऊपर नहीं हो सकता। हमारा कानून यह स्पष्ट रूप से कहता है कि देश में लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए सभी को कानून का सम्मान करना चाहिये लेकिन हम कम से कम उन राजनेताओं को कानून से ऊपर मानते हैं जो कि सत्ता में रहते हैं। हम यह भी देखते आए हैं कि जब कोई राजनेता सत्ता में रहते हुए अपराधियों को संरक्षण देता है और अनेकानेक मामले तो ऐसे रहे हैं जब कोई राजनेता अपने निष्ठावान मगर अपराधी को भी पुलिस थाने से निकाल ले जाते हैं। इसी प्रकार राजनेता जब तक सत्ता में रहता है या किसी गुर्गें का संरक्षण कोई सत्तारूढ़ व्यक्ति करता है तो उस पर कानूनी जांच एजेंसियां हाथ डालने से परहेज करती हैं। अगर कोई नेता सत्ता में है तथा उसके साथ हजारों लोगों का समर्थन है तो वह दूर से ही जांच एजेंसियों को ढेंगा दिखाता है....जांच एजेंसियों को उनकी सीमा दिखाता है... जांच एजेंसियों को कानून की धाराएं और अपने अधिकार बताता है तथा जांच एजेंसियों को अपने घर में घुसने ही नहीं देता है। कड़वे शब्दों में अगर कहा जाए कि सत्तारूढ़ व्यक्ति या राजनेता कानून एवं जांच एजेंसियों को उनके ’’डर और खौफ’’ से दूर उनकी ही भाषा में जबाव देता है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। इतना ही नहीं जब यही सत्ता में रहने वाला व्यक्ति अपनी सुविधानुसार बयान देने के लिए जांच एजेंसियों को कहता है तो सवाल यह उठने लगता है कि क्या हमारे देश में कानून नेताओं और आम व्यक्तियों के लिए अलग-अलग नहीं हैं?

जी हां! हम बात कर रहे हैं यहां पर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की। पिछले करीब पांच महीनों के दौरान देश का प्रवर्तन निदेशालय अर्थात ईडी उनसे दिल्ली के कथित शराब घोटाले में पूछताछ के लिय दरयाफ्त कर रहा है लेकिन वह इस जांच एजेंसी के काबू में ही नहीं आ रहे हैं। वह कहते हैं यह एजेंसी राजनीति से प्रभावित है। वह इस एजेंसी के कार्यालय में जाने को तैयार नहीं हैं। जब यह एजेंसी ईडी उनके निवास पर पहुंचती है तो दरवाजे पर ही खड़ी रहती है और ईडी को कोई महत्व नहीं दिया जाता है। सोमवार अर्थात 4 मार्च को जब ईडी ने उन्हें बयान देने को कहा तो उन्होंने 15 मार्च के बाद ईडी को आने को कहा और साथ ही बयान दिया कि वीडियो कांफ्रेंस के माध्यम से ही उनसे पूछताछ की जाए।

ईडी कितनी राजनीति से प्रभावित है यह अरविंद केजरीवाल का विषय है। हम तो सिर्फ इतना ही जानते हैं कि कानून की इबारतों में नेता,अभिनेता और आम व्यक्ति सभी बराबर हैं। हम यह भी जानते हैं कि अगर केजरीवाल मुख्यमंत्री नहीं होते तो वह भी सामान्य व्यक्ति की तरह जांच एजेंसियों के दफ्तर में बैठे होते तथा चक्कर लगा रहे होते। हमें यह भी पता है कि एक ऐसा दिन जरूर आएगा जब वह कानूनी जांच एजेंसियों के सामने होंगे और उन्हें ईडी या अन्य जांच एजेंसियों को पूछताछ में सहयोग करना होगा क्योंकि हम ही नहीं पूरा देश मानता है कि ’’कानून के हाथ लम्बे होते है’’। हमें यह भी पता है कि वीडियो कांफ्रेंस के माध्यम से पूछताछ की उनकी इच्छा शायद पूरी ना हो लेकिन देश के समक्ष इस वक्त एक प्रश्न कौंध रहा है कि केजरीवाल या अन्य नेता क्या जांच एजेंसियों से ऊपर हैं...? क्या एक मुख्यमंत्री से जांच एजेंसी पूछताछ नहीं कर सकती है..? क्या एक मुख्यमंत्री को जांच एजेंसी के समक्ष अपने बयान देकर सहयोग नहीं करना चाहिये..? एक जांच एजेंसी से असहयोग कर क्या वह कानूनी जांच एजेंसियों के प्रभाव और अधिकार को प्रभावित नहीं कर रहे हैं।

हमने इन प्रश्नों को देश के समक्ष उठाया है और आग्रह करते हैं कि ’’कानून और विधायिका’’ लोकतंत्र की परिभाषा को मजबूत करने की दिशा में अपनी स्पष्ट व्याख्या अवश्य करेगी।

(updated on 4th march 24)